अहंकार पतन का कारण है :- स्वामी रंगनाथाचार्य
विश्वनाथ आनंद ।
टेकारी( गया बिहार )- दिव्य चातुर्मास व्रतानुष्ठान सह श्री लक्ष्मी नारायण महायज्ञ श्री विष्णु पंचायतन मंदिर परिसर रामेश्वर बाग पंचानपुर टिकारी में आज विष्णु पुराण कथा प्रवचन में स्वामी जी लोगो को बताए की एक बार शंकर के अंशावतार श्री दुर्वासा जी को अचानक देवराज इन्द्र पर दृष्टि पड़ी देवराज इन्द्र ने श्री दुर्वासा जी को अभिवादन किया,दुर्वासा जी प्रसन्न होकर प्रसाद के रूप में देवराज इन्द्र को अपनी गले में पहने हुए दिव्य पुष्पों को माला प्रदान की, इंद्र ने उस माला को उठाकर ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिए वो माला दिव्य सुगंधो से युक्त था और उसपर भौरे गुंजार कर रहे थे ऐरावत हाथी इस पुष्प के सुगंध से आकर्षित होकर उस माला को अपने सुड में लिया और सूंघकर पृथ्वी पर फेंक दिया इस प्रकार दुर्वासा जी अपने द्वारा प्रदत्त प्रसाद को तिरस्कृत देख कर ऐश्वर्य के अहंकार से पूर्ण इन्द्र को फटकार लगाई और कहा की ही इंद्र तुम्हारा चित स्वर्गीय वैभव के अहंकार से दूषित हो गया है तू बड़े ढीठ है तूने मेरे द्वारा दी गई दिव्य माला का कुछ भी आदर नहीं किया है न तूने प्रणाम करके कृपा का ही कृतज्ञता व्यक्त की और न ही हर्ष से उसे अपने सिर पर रखा तूने मेरे दी हुई संत प्रसाद का महत्व नहीं समझा इसलिए तेरा त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायेगा इसलिए की तुम मुझे सामान्य ब्राह्मण के समान ही समझते हो तुम अभिमान में चूर होकर एक संत का अपराध किया है अतः तेरा यह त्रिभुवन का वैभव शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा और तुम लक्ष्मी हीन हो जाओगे इस प्रकार दुर्वासा के शाप के कारण इंद्र का वैभव समाप्त हो गया शत और वैभव से सुन्न होने पर दैत्यों ने लोभ वश श्रीहीन देवताओं से घोर युद्ध ठाना और स्वर्ग पर दैत्यों ने अधिकार स्थापित कर लिया इस्प्रकार जब देवता श्री विहीन हो गए तब अग्नि देव को आगे करके पितामह ब्रह्मा के शरण में गए ,ब्रह्मा ने उनसभी को लेकर क्षीर सागर के उतरी तट पर गए और सभी ने समवेत श्वर से भगवान की स्तुति कर प्रार्थना किया की हे प्रभु आपके प्रभाव को बड़े बड़े ऋषि महर्षि देवता लोग भी नही जानते है अतः ही प्रभु हम सब किस प्रकार से आपको जान सकते है अतः आप हम देवताओं पर कृपा करे ऐसी याचना के बाद भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर देवताओं को दैत्यों साथ मिलकर स्वर्ग का मंथन कर रत्नाकर समुद्र से निकलने वाला दिव्य रत्न से सभी को सुखी होने के वरदान दिया तब देवताओं ने समुद्र का मंथन का चौदह रत्न प्राप्त हुए तब देवताओं ने अपने अहंकार को परित्याग कर दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र का मंथन किया और समुद्र से प्राप्त अमृत को भगवान ने देवताओं को पान कराया जिससे देवता सबल हुए और दानवों पर विजय प्राप्त किया और पुनः स्वर्ग पर अपना आधिपत्य किया.