आईने में अपनी छवि देखते समय प्रश्नों के जाल में उलझा हुआ मेरा मन अनायास ही बोल पड़ता हैकौन हूँ मैं

विश्वनाथ आनंद ।
गया (बिहार )- आईने के सामने होकर खड़ा,
जब देखता प्रतिबिंब अपना।
सोचने लगता स्वयं को क्या कहूँ
मैं; सत्य, या फिर, एक सपना?

कौन हूँ मैं; और आया हूँ भला
किस लोक से, इस लोक में मैं?
कौन हूँ, जो भूल बैठा सत्य कल
का आज के आलोक में मैं?

दिख रहा है रूप मेरा आज जो,
क्या वह यथावत रह सकेगा?
काल का क्या सर्प मुझको भी
निगल लेगा, मुझे भी आ डंसेगा?

कौन हूँ मैं; शील हूँ, गुण हूँ,
कला, संगीत, या साहित्य हूँ मैं?
धूल हूँ या फूल हूँ, शशि हूँ,
धरा हूँ, या, उदित आदित्य हूँ मैं?

जग रहा हूँ, नींद में हूँ, मर्त्य हूँ,
या, एक मायाजाल हूँ मैं?
जीव हूँ इक तुच्छ, या परब्रह्म हूँ,
हूँ सूक्ष्म, या, विकराल हूँ मैं?

दिव्यता, शुचिता, मधुरता,
अमरता की डाल हूँ मैं?
या, समय की खिड़कियों से
झाँकता कंकाल हूँ मैं?

✍️ डॉ. कुमारी रश्मि प्रियदर्शनी