साहित्य सम्मेलन हमेशा विवादों में रहता है क्योंकि यहॉं साहित्यिक गतिविधियों के नाम पर राजनीतिक गतिविधियों को ही बढ़ावा मिलता है
संजय वर्मा ।
हिंदी साहित्य सम्मेलन पटना के कदमकुआं यानी हर्ट ऑफ द टाउन में है कट्ठा नहीं कई बीघा में।इसकी भव्य इमारत है बड़ा सा फील्ड जैसा कैम्पस हैं शादी व्याह तिलक रिसैप्शन की बुकिंग के लिये महीनों पहले से मारा मारी होती है बिल्डिंग के आगे फील्ड में कभी जादू दिखाने तो कभी सेल लगाने के लिये बुक रहता है यानी सालभर के अंदर करोड़ों की आमदनी होती है पर यह भारी भरकम राशि किसके पेट मे जाती है समझना मुश्किल नही है साहित्य सम्मेलन हमेशा विवादों में रहता है क्योंकि यहॉं साहित्यिक गतिविधियों के नाम पर राजनीतिक गतिविधियों को ही बढ़ावा मिलता है इसका चुनाव कैसे होता कौन करता और चुनाव लडने की पात्रता क्या है यह मुझे नहीं पता पर हमेशा पॉलिटिशियन ने अपना मत बनाकर मठाधीशी ही किया फिलहाल जो मठाधीश है ।
उनका न हिंदी और न साहित्य से दूर दूर तक कोई सरोकार है वो एक एनजीओ के संचालक से यहां तक कैसे पहुंचे सबको मालूम है वो अभी खालिस अधकचड़ा पॉलिटिशियन हैं जो विधानसभा राज्यसभा जाने की पुरानी इच्छा की पूर्ति के लिए हिंदी साहित्य समम्मेलन का इस्तेमाल कर रहे कभी कांग्रेस में रहे अब भाजपाई गीत गा रहे रोज राजनीतिक गतिविधियों के जरिये सुर्खियों में बने रहते है जो भी जिनको भी साहित्यकार पत्रकार बताकर सम्मानित कर सर्टिफिकेट दे देते है इससे हिंदी साहित्य का कितना भला हो रहा मैं आह्वान कर रहा हूँ कि हिंदी साहित्य सम्मेलन को माफियाओं मठाधीशों से मुक्ति के लिये राज्यभर के साहित्यकार संस्कृतिकर्मी रंगकर्मी कवि लेखक पत्रकार सबको आगे आना चाहिये और अपने इस ऐतिहासिक विरासत को बचाने के लिये जो भी सम्भव हो करें।