बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर और जनसुराज की भूमिका

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जावेद अहमद ख़ान .

शेरघाटी।बिहार की राजनीति हमेशा से अपनी विशिष्ट जटिलताओं, जातीय समीकरणों, सामाजिक विषमताओं और जनभावनाओं के उतार-चढ़ाव के लिए जानी जाती रही है। इस राज्य में चुनाव सिर्फ एक राजनीतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन के समान होता है, जहाँ हर वर्ग, हर समुदाय और हर क्षेत्र अपने-अपने मुद्दों के साथ सामने आता है। ऐसे परिदृश्य में प्रशांत किशोर और उनका जन-आंदोलन “जनसुराज” पिछले कुछ वर्षों में एक नई सोच और ऊर्जा लेकर उभरा है, जिसने बिहार की राजनीतिक बहस को नई दिशा दी है।

जनसुराज: एक आंदोलन से राजनीतिक विकल्प तक

प्रशांत किशोर ने 2021 में जब जनसुराज यात्रा की शुरुआत की, तब बहुत से लोगों ने इसे महज़ एक प्रचार अभियान या राजनीतिक प्रयोग के रूप में देखा। कई लोगों ने इसे सत्ता के किसी बड़े खेल का हिस्सा बताते हुए “ बी टीम ” करार दिया। लेकिन समय के साथ किशोर ने इस धारणा को गलत साबित किया। उन्होंने बिहार के सुदूर ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरी केंद्रों तक लगातार यात्रा कर लोगों से प्रत्यक्ष संवाद किया। इस तीन वर्ष लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने न केवल समस्याओं को सुना बल्कि समाधान पर चर्चा की, जिससे जनता के बीच उनका एक भरोसेमंद चेहरा उभरा।

जनसुराज का सबसे बड़ा आकर्षण यह रहा कि यह सिर्फ सत्ता प्राप्ति का अभियान नहीं बल्कि ” सुव्यवस्था, सुशासन और सुशिक्षा ” जैसे मूलभूत मुद्दों पर आधारित एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन है। इसमें युवा, शिक्षक, किसान, महिलाएँ और बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में जुड़े हैं।

पारदर्शिता और वैकल्पिक राजनीति की नई मिसाल

प्रशांत किशोर की पारदर्शिता ने उन्हें पारंपरिक राजनेताओं से अलग पहचान दी है। उन्होंने खुले तौर पर बताया कि उनकी आय क्या है, उनकी राजनीतिक गतिविधियों का वित्त पोषण कहाँ से होता है और किन सिद्धांतों पर जनसुराज काम करता है। यह पारदर्शिता बिहार की राजनीति में एक नई और सकारात्मक परंपरा स्थापित करती है, जहाँ आम तौर पर चुनावी फंडिंग और राजनीतिक गठबंधनों पर पर्दा डाला जाता है।

उन्होंने सत्ता और विपक्ष दोनों पर समान तीखे प्रहार किए — एनडीए की नीतियों और उसके नेताओं नीतीश कुमार और सम्राठ चौधरी पर भी और साथ ही आरजेडी और उसके सहयोगी कांग्रेस पर भी। उनका यह संतुलित दृष्टिकोण इस बात का संकेत है कि जनसुराज किसी भी पारंपरिक गठबंधन का विस्तार नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।

रणनीतिक समझ और चुनावी अनुभव का लाभ

प्रशांत किशोर का बिहार की सामाजिक बनावट, जातीय समीकरण और चुनावी पैटर्न का गहरा ज्ञान किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होंने भारत के कई राज्यों में चुनावी अभियानों को सफलतापूर्वक संचालित किया है और उनकी रणनीति ने कई बार राजनीति की दिशा बदल दी है। यही अनुभव अब वे अपने गृह राज्य बिहार में प्रयोग कर रहे हैं।

उनकी प्रोफेशनल और तकनीकी टीम डेटा, सर्वेक्षण और जमीनी फीडबैक के आधार पर अभियान तैयार करती है। यह टीम गाँव-गाँव, पंचायत-पंचायत में जाकर जनसंपर्क करती है। जनसुराज की चुनावी रणनीति में न केवल पारंपरिक प्रचार माध्यम बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म का भी प्रभावी उपयोग किया जा रहा है। यह आधुनिकता और परंपरा का समन्वय जनसुराज को अन्य क्षेत्रीय दलों से अलग बनाता है।

आंतरिक चुनौतियाँ और संगठनात्मक परिपक्वता की परीक्षा

अब जब विधानसभा चुनाव करीब हैं, प्रशांत किशोर और उनकी टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती टिकट वितरण प्रक्रिया के बाद की स्थिति को संभालना है। हर आंदोलन जब राजनीतिक दल के रूप में परिवर्तित होता है, तब आंतरिक असंतोष और गुटबाजी स्वाभाविक रूप से उभरती है। जनसुराज के सामने भी यही स्थिति है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि किशोर इस आंतरिक असंतोष को कैसे संभालते हैं। उनके विरोधी निश्चित रूप से इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करेंगे, मीडिया में भ्रम और असंतोष की कहानियाँ फैलाने का प्रयास करेंगे। लेकिन अगर किशोर अपनी संवाद क्षमता और संगठनात्मक अनुशासन के बल पर अपने कार्यकर्ताओं को, जो भावनात्मक रूप से उनसे जुड़े हैं और बिहार के विकास के मिशन में सच्चे दिल से समर्पित हैं — एकजुट बनाए रखने में सफल रहते हैं, तो यह उनकी नेतृत्व क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण होगा।

बिहार की राजनीति में तीसरे मोर्चे का उदय

बिहार की राजनीति लंबे समय से द्विध्रुवीय रही है — एक ओर एनडीए और दूसरी ओर आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन। लेकिन जनसुराज के उदय ने इस संतुलन को चुनौती दी है। चाहे इसे व्यापक जनसमर्थन मिले या सीमित, इसने राज्य की जनता के सामने तीसरा विकल्प प्रस्तुत किया है। एक ऐसा विकल्प जो जातीय समीकरणों या वंशवाद से नहीं, बल्कि विकास और जनसरोकारों से प्रेरित है।

जनसुराज ने युवाओं, शिक्षित वर्ग और शहरी मतदाताओं के बीच नई चर्चा छेड़ी है। कई युवा, जो पहले राजनीति से दूरी बनाए रखते थे, अब जनसुराज के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो रहे हैं। यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।

निष्कर्ष: बिहार की जनता के विवेक की प्रतीक्षा

प्रशांत किशोर की भविष्यवाणियाँ चाहे जितनी साहसिक हों, इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने बिहार में राजनीतिक विमर्श का रुख बदल दिया है। उन्होंने लोगों के बीच यह भावना जगाई है कि राजनीति केवल सत्ता परिवर्तन का माध्यम नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का उपकरण भी हो सकती है।

अब यह बिहार की जनता पर निर्भर करता है कि वे इस नए राजनीतिक प्रयोग को कितना स्वीकार करती है। जनसुराज को जितनी भी सीटें मिलें, उसका प्रभाव पहले ही स्थापित हो चुका है। उसने पारंपरिक राजनीति की जड़ता को तोड़ा है और जनता को सोचने पर मजबूर किया है कि राजनीति में वैकल्पिक सोच और पारदर्शी नेतृत्व भी संभव है।

अंततः, आने वाले चुनावों में जनता का विवेक ही तय करेगा कि क्या बिहार वास्तव में एक नई राजनीतिक यात्रा पर निकलता है, या फिर वही पारंपरिक समीकरण दोहराए जाते हैं। लेकिन इतना तो निश्चित है कि प्रशांत किशोर और जनसुराज ने बिहार की राजनीति में परिवर्तन की एक ऐसी लहर पैदा कर दी है जिसे अब नज़रअंदाज़ करना किसी भी दल के लिए संभव नहीं।