26 जून 1975-आपातकाल को याद कर आज भी सिहर उठतें हैं भारतीय
एस के राजीव ।
जो कौम अपने इतिहास को याद नहीं रखती वो कौम समाप्त हो जाती है—दरअसल हम ये बात इसलिये कह रहे हैं क्योंकि आज के ही दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में इमरजेंसी लागू कर संविधान के पन्नों को काली स्याही से रंग दिया था—-कहा जाता है कि इमरजेंसी को लेकर देश की आजादी की दूसरी लङाई लङी गई थी—– आज भी जेपी की धरती पटना इमरजेंसी को याद कर सिहर उठती है और आज के दिन को लोकतंत्र का काला अध्याय बताती है—
25, जून 1975 के दिन दोपहर के साढ़े तीन बजे— इंदिरा गांधी के दिमाग में दूर-दूर तक यह ख्याल नहीं था कि कोई आंतरिक आपातकाल जैसी स्थिति भी होती है। जेपी के आंदोलनों से परेशान इंदिरा ने अपने विश्वसनीय और प. बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे से कहा कि वे उन्हें संविधान की कोई कमजोर कड़ी बताएं। रे ने घंटों तक संविधान के पन्ने पलटे। अंतत: उन्हें वह तोड़ मिल गया, जो इंदिरा चाहती थीं। आर्टिकल 152। उसी शाम इंदिरा और रे राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे। इधर, इंदिरा राष्ट्रपति के दस्तखत ले रही थीं और उधर गिरफ्तारी के लिए विपक्ष के नेताओं की सूची बन रही थी। 26 जून, 1975 को इंदिरा ने आल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की घोषणा कर दी और देशवासियों के सारे नागरिक अधिकार एक ही झटके में समाप्त कर दिये गये—-आज भी 1975 के इस दिन को याद कर लोग सिहर उठते हैं—–
1975 में इमरजेंसी लागू होने के बाद गिरफ्तारी से बचने के लिए आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी तक ने सिख वेश धारण कर लिया था। कुछ दिन पहले पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल की आशंका जताकर उन 19 महीनों की भयावह यादों को ताजा की थी—- तत्कालीन केंद्र सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों सर्वत्र जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चन्द्रशेखर, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और रा. स्व. संघ के वरिष्ठ अधिकारियों को चुन-चुन कर जेल भिजवा दिया, लेकिन देश में इन्दिरा की तानाशाही और अत्याचार के विरुद्ध लोगों का आंदोलन भीतर ही भीतर सुलगने लगा था। लोगों की जनसभाएं कांग्रेस की कुरीतियों के विरुद्ध जारी थीं। लेकिन उस समय जेपी के आंदोलन ने राजनीति को कई चेहरे दिये जिसमें बिहार से लालू, नीतीश, सुशील मोदी और रामविलास जैसे नेता थे जिन्होंने आपातकाल के विरुद्ध जेपी के साथ लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया था—-
आपातकाल के समय ही इंदिरा के बङे बेटे संजय गांधी ने पूरे देश में जबरन नसबंदी अभियान चलाया था और शहर से लेकर गांव-गांव तक नसबंदी शिविर लगाकर 62 लाख लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए थे—–हालांकि आपातकाल हटने के बाद कांग्रेस की आम चुनाव में हुई करारी हार ने न केवल इन्दिरा गांधी के तिलिस्म को तोड़ दिया, बल्कि बड़े-बड़े धुरंधरों को मुंह की खानी पड़ी। आज आपातकाल के 43 वर्ष बाद भी उसका दंश झेल चुके लोगों की आंखें भर आती हैं—–और लोग आज की शासन व्यवस्था पर भी एक बार फिर सवाल खड़े करते हैं–वहीं 1975 में 26 जून को पटना में भी अचानक छात्रों को हॉस्टल खाली करना पड़ा था और सारे छात्र दहशत में थे—इमरजेंसी में वन मैन शो था और अगर किसी की हत्या हो जाती थी तो उसे लेकर कहीं कोई अपील भी नहीं कर सकता—
आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय। आपातकाल की इस आपाधापी में पुलिस भूमिका किसी खलनायक से कम न था क्योंकि अपने ही देश की पुलिस के अत्याचार ब्रिटिश राज के अत्याचारों को भी मात दे रहे थे। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और लगभग प्रत्येक परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा तो मीडिया पर पाबंदी लगाकर सरकार ने खूब मनमानी भी की। लेकिन आज देश के जो हालात जेपी के उन नेताओं ने बना रखा है उसको देखकर ये कहा जा सकता है कि ऐसे हालात से कहीं ज्यादा बेहतर उस समय का आपातकाल था क्योंकि आपातकाल में कोई नेता देश को खंडित करने की बातें नहीं करता था—जरा सोचिये आज हम कहां से कहां पहुंच गए हैं—–तो क्या देश को फिर से जरूरत है एक जेपी जैसे नेता की या फिर एक और इमरजेंसी की। वैसे देश आज भी रोज बुनियादी इमरजेंसी की लड़ाई लड़ रहा है———
लेखक न्यूज 22 स्कोप के बिहार संपादक हैं।